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आलेखमध्य प्रदेशसंपादकीय

अति स्वाभाविक है नेहरू से जलन

 राकेश अचल
पूरे 130 साल बाद भी कोई नेता जलन का कारण हो सकता है ये सोचकर मेरे मन में गुदगुदी होने लगती है। देश और दुनिया में बहुत कम जन नेता ऐसे हैं जिनसे लोग जलते हैं और सिर्फ इसलिए जलते हैं क्योंकि वे उनके जितने लोकप्रिय और सुदर्शन नहीं हैं ।पंडित जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तित्व और कृतित्व से होने वाली जलन देखकर सचमुच मजा आता है ।
मेरा दुर्भाग्य है मैंने बच्चों के चाचा नेहरू को साक्षात नहीं देखा। जब उनका निधन हुआ तब मै खुद बच्चा था,उस जमाने में आज की तरह टीवी चैनल तो होते नहीं थे इसलिए नेहरू को ‘लाइव’देख पाना भी मुमकिन न था ।नेहरू को हमने फिल्म्स डिवीजन की भेंट के जरिये चलचित्रों में ही देखा।कभी पंचायत की चलचित्र इकाई के फिल्म प्रदर्शन के दौरान तो कभी किसी सिनेमाघर में चलने वाली न्यूजरील में ।बड़ा हुआ तो नेहरू को बाग़-बगीचों में,चौराहों पर और सबसे ज्यादा लोगों के दिल में मुस्कराते देखा ,किताबों में पढ़ा ।नेहरू मुझे हर रूप में मोहक लगे ।
सच कहूँ तो मै बड़ा होकर नेहरू जैसा बनना चाहता था लेकिन बन नहीं पाया ।नेहरू का पहनावा और मुस्कान बेहद आकर्षक थी ,उनके भाषण सम्मोहित करते थे।वे उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी में बोलते थे,उनके अंग्रेजी भाषण तो मैंने स्नातक होने के बाद समझे ।उनके भाषणों में न कोई खीज होती थी और न तंज ,न कोई चीख न झल्लाहट ,उनके भाषण पनीले होते थे,सपनों से बाहर भाषण सुनकर आनंद आता था ।नेहरू की तस्वीरें देखने मै इलाहाबाद में उनके घर आनंदभवन अनेक बार गया ।लेकिन पिछले छह साल से मै ये समझने में लगा हूँ कि आखिर जिस नेहरू से इस देश का बच्चा -बच्चा प्यार करता है उस नेहरू से इस देश के कतिपय नेता घृणा क्यों करते हैं ?
नेहरू ने देश को आजादी के बाद एक समृद्ध आधारशिला बनाकर दी। नवरत्न कही जाने वाली संस्थाएं बनवाईं,भाखड़ानागल दिया ,पंतनगर जैसा कृषि विश्व विद्यालय दिया ।पंचशील और निर्गुटता जैसे मौलिक सिद्धांत दिए ,नेहरू का दुर्भाग्य था कि वे चाय नहीं बेच पाए,उनका दुर्भाग्य था कि उन्हें पढ़ने के लिए हीरोज स्कूल और ट्रिनिटी कालेज जाना पड़ा ।नेहरू की किस्मत थी कि उन्हें गंगा माँ ने बुलाया नहीं बल्कि गंगा,जमुना और सरस्वती ने उन्हें अपनी कोख से जन्मा ।वे इलाहाबाद में नहीं प्रयागराज में जन्मे ।अब इन सब कारणों से कोई नेहरू से जलता हो तो कोई क्या कर सकता है ?
जवाहर लाल नेहरू महात्मा गांधी की पसंद से जेबी कृपलानी और सरदार बल्ल्भ भाई पटेल के पीछे हटने से प्रधानमंत्री बने थे उन्होंने किसी बुजुर्ग को धकियाकर प्रधानमंत्री पद हासिल नहीं किया था ।वे पूरे सत्रह साल देश के प्रधानमंत्री रहे और उन्हें गठबंधन की कोई सरकार नहीं चलाना पड़ी ।उन्हें देश ने ‘भारत रत्न’ से तब अलंकृत किया जब आज के प्रधानमंत्री जी मात्र पांच वर्ष के थे ।मेरे ख्याल से उन्होंने भी बचपन में नेहरू जी की जीवनी पढ़कर ही प्राथिक और माध्यमिक परीक्षाएं उत्तीर्ण की होंगी ,लेकिन दुर्भाग्य ये है कि हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री जी नेहरू की समाधि पर नहीं जाते,आनंदभवन में उन्होंने कदम नहीं रखा ,नेहरू के स्मारकों को वे चौपट करने पर लगे हैं ।
नेहरू की लोकप्रियता के इतर बहुत से लोगों का विचार है कि नेहरू ने अन्य नेताओं की तुलना में भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बहुत कम योगदान दिया था फिर भी गांधीजी ने उन्हे भारत का प्रथम प्रधानमन्त्री बना दिया। स्वतंत्रता के बाद कई दशकों तक भारतीय लोकतंत्र में सत्ता के सूत्रधारों ने प्रकारान्तर से देश में राजतंत्र चलाया, विचारधारा के स्थान पर व्यक्ति पूजा को प्रतिष्ठित किया और तथाकथित लोकप्रियता के प्रभामंडल से आवेष्टित रह लोकहित की पूर्णत: उपेक्षा की।ये हो भी सकता और नहीं भी ,बावजूद इसके कोई नेहरू को खारिज करने के अभियान में लग जाए ये समझ से परे है ।नेहरू जिस पृष्ठभूमि से आये इसमें उनका कोई दोष नहीं है ,लेकिन उन्होंने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में किसी दूसरे नेता से कम काम किया हो तो आपत्ति उठाई जा सकती है ।
नेहरू ने प्रतिस्पर्धा के बावजूद कभी घृणा को नहीं सींचा,कृपलानी जी हों या पटेल वे सबके साथ अंत तक मिलजुलकर काम करते रहे ।नेहरू के योगदान को खारिज करना किसी बचपने से कम नहीं है ।बहरहाल नेहरू जैसे भी रहे हों मुझे उनमें एक चाचा दिखाई देता है।उनकी मुस्कान में एक निश्छलता छलकती है ,वे अभिजात्य वर्ग से आकर भी सहज लगते हैं,वे विनोदी भी हैं और अनुशासन प्रिय भी इसीलिए वे 130 साल बाद भी ज़िंदा हैं , कोई भी घृणा अभियान उनकी स्मृतियों और योगदान को धूमिल नहीं कर सकता ।नेहरू पाठ्यक्रमों से हटाए जा सकते हैं,सड़कों से हटाए जा सकते हैं लेकिन उन्हें लोगों के दिलों से निकालना आसान नहीं है ।दुनिया भारत को आज भी गांधी-नेहरू के नाम से जानती है
नेहरू के युग में सोशल मीडिया नहीं था,टीवी चैनल नहीं थे ,उनका कोई ट्विटर हैंडलर नहीं था,उन्हें खुद लिखना-पढ़ना होता था।वे लोकमान्य तिलक के बाद राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर निरंतर और मौलिक लिखने वाले नेताओं में से थे उन्हें अपनी डिग्रियां छिपानी नहीं पड़ीं उन्होंने जो और जितना लिखा आज भी भारतीय साहित्य का अविभाज्य अंग है ।इसलिए नेहरू को भुलाने की नहीं बल्कि याद करने की जरूरत है,उनके सपनों में रंग भरने के साथ उनके सपनों से आगे सपने देखने की जरूरत है।ये काम उनसे घृणा कर नहीं स्नेह कर हो सकता है,उन्हें सम्मान देकर हो एकता है ।आप देश का कोई भी नया इतिहास लिख लीजिये उसमें नेहरू को जगह देना ही पड़ेगी ।बिना नेहरू का जिक्र किये आप कोई इतिहास लिख पाएंगे इसमें मुझे संदेह है ।नेहरू के जन्मदिवस पर मेरी हार्दिक बधाई उन बच्चों को जो नेहरू से स्नेह करते हैं उन्हें चाचा कहते हैं ।अब तो राजनीति में कोई चाचा बनना ही नहीं चाहता ।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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Chief Editor JKA

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