लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया की भूमिका

( इंजी. वीरबल सिंह )
मीडिया को लोकतंत्र का एक स्तम्भ माना गया है और इसकी अपनी महत्ता है क्योंकि यह हमारे चारों ओर मौजूद होता है, अतः यह निश्चित सी बात है की इसका असर समाज के ऊपर भी पड़ेगा । किसी ने भले ही कितने परोपकारी कार्य किये हों और अगर मीडिया चाह ले तो उसकी छवि एक पल में धूमिल कर सकता है । आज यही वास्तविकता है । ब्लैकमेलिंग का ज़माना है, सभी पूर्ण रूप से व्यापारी बन चुके हैं । डिजिटल युग में हर ओर प्रतिस्पर्धा है फलस्वरूप मीडिया को चलाने के लिए खर्चे भी बढ़े हैं । इन खर्चों को पूरा करने के लिए ज्यादातर मीडिया हाउस सरकार, पूंजीपति और बड़ी बड़ी कंपनियों पर आश्रित हो गए हैं इन सब पर निर्भर होने से मीडिया की आजादी ही खतरे में आ गई है । नेता, दलालों से गठबंधन, ब्रेकिंग न्यूज़, विज्ञापन और अनेक हथकण्डे अपना मीडिया आज आर्थिक रूप से सक्षम है पर क्या वो अपनी पहचान और वो वजूद कायम रखने में सक्षम है? इसका जवाब आएगा ” नहीं”।
कहा जाता है कि सूचना दोधारी तलवार की तरह होती है। एक ओर इसका उपयोग भ्रम और कहरता फैलाने में किया जा सकता है, तो दूसरी ओर रचनात्मक कार्यों में भी किया जा सकता है। सूचना क्रांति के इस आधुनिक दौर में सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रगति में सूचना क्रांति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है किंतु सूचना क्रांति की ही उपज, सोशल मीडिया को लेकर उठने वाले सवाल भी महत्त्वपूर्ण हैं। ये सवाल हैं- क्या सोशल मीडिया हमारे समाज में ध्रुवीकरण की स्थिति उत्पन्न कर रहा है तथा समाज की प्रगति में सोशल मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिये? हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहाँ हम सूचना के न केवल उपभोक्ता है, बल्कि उत्पादक भी हैं। यही अंतर्द्वद्व हमें इसके नियंत्रण से दूर कर देता है। प्रतिदिन कई बिलियन लोग फसेबुक पर लॉग-इन करते हैं। हर सेकेंड ट्वीटर पर ट्वीट किये जाते हैं और इंस्टाग्राम पर कई तस्वीरें पोस्ट की जाती हैं।
लोकतंत्र के एक मजबूत स्तम्भ की साख आज दांव पर है । जी हां मैं बात कर रहा हूं पत्रकारिता की, जो एक महत्वपूर्ण कड़ी है सरकार और जनता के बीच । समाज में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि यह जनता और सरकार के बीच सामंजस्य बनाने में मदद करता है, लेकिन ये अब ऐसे स्तर पे आ गया है जहां लोगों का भरोसा ही इस पर से खत्म होता जा रहा । इसका अत्यधिक व्यावसायीकरण ही शायद इसकी इस हालत की वजह है । सोशल साइट्स, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और इंटरनेट के जमाने में प्रिंट मीडिया कमजोर हो चला, क्योंकि व्हाट्सएप्प, ट्विटर और फेसबुक पर हर समाचार बहुत ही तेज़ी से फ़ैल जाता है । सभी समाचार पत्रों के ऑनलाइन एडिशन भी आ गए हैं पर उतने लोकप्रिय नहीं हैं, सभी अब फेसबुक का सहारा लेते हैं । न्यूज चैनलों की बाढ़ सी आ गयी है पर आज सच्ची और खोजी पत्रकारिता में गिरावट आ गयी, सभी मीडिया हॉउस राजनितिक घरानों से जुड़े हुए हैं, टीआरपी बढ़ाने की होड़ लगी है, ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा आम है, देश की चिंता कम विज्ञापनों की ज्यादा है ।ये कारण भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं ।
राजनीति और पूंजीवाद से मीडिया की आजादी पर भी खतरा मंडरा रहा । पिछले कुछ वर्षों में मीडिया से जुड़े कई लोगों पर कितने ही आरोप लगे, कुछ जेल भी गए तो कुछ का अब भी ट्रायल चल रहा । आज पत्रकारिता और पत्रकार की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठता है? आखिर हो भी क्यों नहीं? वो जिसे चाहे चोर बना दे, जिसे चाहे हिटलर । किसी का महिमामंडन करने से थकता नहीं तो किसी को गिराने से पीछे हटता नहीं । आज मीडिया का कोई भी माध्यम सच दिखाने से ही डरने लगा है. कहीं आज मीडिया सरकार से तो नहीं डर रहा? खोजी पत्रकारिता का असर कुछ भयानक होने लगा है. आये दिन पत्रकारों पर हमले होने लगे हैं । किसी भी क्षेत्र की त्रुटि और भ्रष्टाचार को सामने लाने से पत्रकारो को जान से हाथ धोने पड़ रहे ।. पत्रकार अपनी ईमानदारी से समझौता करने को विवश हो रहे. अगर ये सच है तब तो वो दिन दूर नहीं जब हम सच और निष्पक्ष खबरों के लिए तरस जायेंगे ।
सभी लोग, हम, आप और मीडिया बदलाव की बात तो करते हैं पर इनमें कोई भी बदलना नहीं चाहता ।सभी एक ही नाव पर सवार हैं पर स्थिति तो डंवाडोल और नाजुक है ।जो आम जनता की आवाज़ है वही कराह रहा तो कौन खड़ा होगा समाज को आइना दिखाने के लिए? सरकार और सरकार के कार्यों पर कौन नज़र रखेगा? हमारी और आपकी परेशानियों को सरकार तक कौन पहुंचायेगा? विद्यार्थियों, कामगारों और आम जनता की आवाज कौन बनेगा? अब भी वक़्त है कि हम संभल जायें, चकाचौंध, टीआरपी की दौड़ और पैसों के पीछे न भाग हम निष्पक्ष पत्रकारिता पर ध्यान दें तो शायद लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ खोखला होने से बच जाये ।
( लेखक प्रधान संपादक हैं )

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