ओबीसी आरक्षण भाजपा-कांग्रेस के लिए बना गले की हड्डी

इंजी. वीरबल सिंह
मध्यप्रदेश में लंबे समय से चल रहा ओबीसी आरक्षण का मुद्दा बीते रोज सुप्रीम कोर्ट ने लगभग खत्म सा कर दिया । सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में सरकार को यह निर्देश जारी किए हैं कि मध्य प्रदेश के बहुप्रतीक्षित पंचायत पर नगरीय निकाय चुनाव बिना ओबीसी आरक्षण के संपन्न कराए जाएं । माननीय न्यायालय के इस निर्णय के बाद जहां एक तरफ ओबीसी वर्ग के बीच खासी नाराजगी दिखाई दे रही है तो वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस अपने अपने तरीके से इस मामले पर ओबीसी वर्ग की तरफदारी करते हुए दिखाई दे रही है । दोनों ही पार्टियां अपनी इस नाकामी की गेंद को एक दूसरे के पाले में फेंक रहे हैं । ओबीसी आरक्षण ना मिल पाना अब भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए गले की हड्डी बन गया है जिसे ना तो वे निगल पा रहे हैं और ना ही उगल पा रहे हैं ।
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग को सरकारी नौकरियों में दिए जाने वाले 27% आरक्षण को अभी तक रोक रखा था । कमलनाथ सरकार ने 2019 में आरक्षण अधिनियम संसोधन विधेयक लाकर प्रदेश में ओबीसी के आरक्षण का कोटा 14% से बढ़ाकर 27% करने का फैसला किया था । सरकार के इस फैसले के खिलाफ कई संगठनों ने कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिस पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। अब तक इन याचिकाओं पर सुनवाई के लिए तारीख पर तारीख मिलती जा रही थी इतना ही नहीं जो सरकार आरक्षण देने की बात कर रही थी अब वह सत्ता में काबिज भी नहीं है ऐसे में अब हाईकोर्ट को जवाब कमलनाथ सरकार को नहीं बल्कि शिवराज सरकार को देना था । जबलपुर हाईकोर्ट ने 19 मार्च 2019 को कमलनाथ सरकार द्वारा अन्य पिछड़े वर्ग को दिए जाने वाले 27% आरक्षण के फैसले पर रोक लगाई थी ,अब तक उसके बाद सरकार लगातार उसकी पैरवी कर रही थी । जबलपुर हाई कोर्ट ने साफ कर दिया था कि फैसला आने तक मध्य प्रदेश में अन्य पिछड़े वर्ग को पूर्व की तरह ही 14% आरक्षण दिया जाएगा । 23 सितंबर 2020 को एक बार फिर हाईकोर्ट ने यह कहकर मामला टाल दिया कि अभी अन्य पिछड़े वर्ग को सत्ताईस परसेंट आरक्षण नहीं दिया जा सकता , अंतिम सुनवाई में माननीय उच्चतम न्यायालय ने सरकार की ओर से डेटा प्रस्तुत न करने के चलते दो हफ्ते के भीतर बिना ओबीसी आरक्षण के नगरीय निकाय चुनाव और पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी करने के निर्देश जारी कर दिया है ।
पूर्व में सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट में सरकार द्वारा कहा गया कि प्रदेश में करीब 54 फ़ीसदी आबादी को देखते हुए आरक्षण को 14 परसेंट से बढ़ाकर 27 परसेंट करने का विचार किया गया है । लिहाजा हाई कोर्ट को आरक्षण पर लगाई गई रोक को हटा लेना चाहिए वही याचिकाकर्ताओं की तरफ से इसे खारिज करने की याचिका दायर की गई थी । अब सरकार की तरफ से हाईकोर्ट को कोई जवाब ना देने तथा हाई कोर्ट द्वारा रोक को बरकरार रखने के विरोध में प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग समाज के बीच रोष की आग उत्पन्न हो गई थी, वे सरकार से इसकी मांग कर रहे हैं । इसके लिए जगह-जगह आंदोलन करना तथा प्रदेश सरकार सहित केंद्र के तमाम नेताओं को ज्ञापन सौंपने के अलावा उनका घेराव किया जा रहा था ।
पिछले कई वर्षों से हम एक नया बदलाव देख रहे हैं। वे मध्यवर्गीय जातियां, जिनके पास जमीन है, पैसा भी है और संख्या बल के लिहाज से राजनीतिक ताकत भी है, अब आरक्षण की मांग कर रही हैं। चाहे वह जाटों का नया आंदोलन हो, या फिर महाराष्ट्र में मराठों का आंदोलन। आंध्र प्रदेश में कापू समुदाय भी आरक्षण की मांग कर रहा है, तो असम में अहोम और गुजरात में पटेल समुदाय की भी यही मांग है। वाकई यह सोचने वाला सवाल है कि आखिर जिन समुदायों का समाज में दबदबा रहा है, वे अपने लिए आरक्षण की मांग क्यों कर रहे हैं? दरअसल, जब आरक्षण के प्रावधान संविधान में जोड़े गए, तब वे न तो जाति को लेकर थे और न ही आर्थिक पिछड़ेपन को लेकर। तब सामाजिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण देने की बात थी। यह सोचा गया था कि आर्थिक पिछड़ापन दूर करना सरकार का फर्ज है, इसलिए आरक्षण को गरीबी दूर करने का हथियार नहीं समझा गया था। आरक्षण के बारे में पहले काका कालेलकर कमेटी की सिफारिशें आईं, फिर मंडल आयोग की, मगर इंदिरा गांधी ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की, और वी पी सिंह सरकार के कार्यकाल में इसे लागू किया गया। चूंकि वी पी सिंह सरकार राजनीतिक दबाव में थी, इसलिए माना जाता है कि उन्होंने आरक्षण का दांव खेला। तब यह तय हुआ था कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ 27 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा। मगर मंडल आयोग विरोध के मुद्दे ने जिस तरह से तूल पकड़ा, उससे वी पी सिंह की सरकार चली गई। बहरहाल, मंडल आंदोलन से उत्तर भारत में नया ओबीसी नेतृत्व उभरा । स्वाभाविक तौर पर इसकी कठोर प्रतिक्रिया उन समुदायों से आई है, जो राजनीतिक रूप से ताकतवर रही हैं और जमीन-जायदाद से संपन्न हैं। उनमें यह आशंका गहरी हुई है कि उनकी ताकत कोई दूसरा ले जाएगा। इसलिए अब यह मांग हो रही है कि या तो हमें भी आरक्षण दो, या फिर इसका प्रावधान ही खत्म करो। कई विश्लेषक इससे इत्तफाक रखते हैं कि गुजरात में पाटीदारों या हरियाणा में जाटों ने जिस तरह से आरक्षण को लेकर माहौल गरम किया है, वह दरअसल आरक्षण खत्म करने का ही पहला कदम है।
एक मुद्दा आरक्षित वर्गों व जातियों के क्रीमी लेयर का है, जो सारा फायदा ले जा रहा है। इससे बच्चों और नौजवानों में नाराजगी बढ़ी है। उन्हें लगता है कि 90 फीसदी अंक लाकर भी उनका दाखिला बढि़या संस्थानों में नहीं होता, जबकि अपेक्षाकृत काफी कम अंक लाकर आरक्षण के बूते दूसरी जातियां लाभ उठाती हैं। इससे सामाजिक कटुता बढ़ी है । यहां यह भी सवाल है कि अगर इस तरह आरक्षण का लाभ मिलता रहा, तो दूसरी जातियां भी इस रास्ते पर बढ़ चलेंगी, जिससे यह समस्या और जटिल हो जाएगी। नाराजगी ओबीसी समुदायों में भी है। उन्हें लगता है कि अन्य जातियों को आरक्षण दिया गया, तो उनके अवसर सिमट जाएंगे। यदि स्थिति को संजीदगी से नहीं सुलझाया गया, तो आने वाले दिनों में हम जाति-युद्ध के गवाह बन सकते हैं। सवाल है कि इस मुद्दे को सुलझाया कैसे जाए? मेरी राय में इस पर व्यापक नजरिया चाहिए। आज राजनीति इतनी तंगदिल हो गई है कि जब संकट मुहाने आ खड़ा होता है, तब राजनेता उस विषय में सोचते हैं। इस नजरिये को बदलने की जरूरत है। एक दीर्घकालीन योजना चाहिए, ताकि आरक्षण की आग आगे न फैले। अब यह पड़ताल करने का वक्त आ गया है कि आज हमारा समाज वाकई में कितना पिछड़ा है, और उसे आरक्षण की कितनी जरूरत है? संभव हो, तो एक राष्ट्रीय आयोग बनना चाहिए, जो तमाम मुद्दों को परखे। हालांकि इसमें भी नजरिया यह न हो कि आरक्षण को हटाना है, बल्कि सोच यह होनी चाहिए कि कौन वाकई जरूरतमंद है। आरक्षण में नई जातियां जोड़ने की जरूरत है, तो सभी तक इसका फायदा पहुंचे, यह भी तय करने की आवश्यकता है। जरूरी यह भी है कि इस आयोग में कोई सरकारी नुमाइंदा न हो, क्योंकि लोगों का सरकार पर भरोसा कमजोर होने लगा है। उस आयोग में ऐसे लोग हों, जो मुद्दे की गंभीरता से अवगत हों और जिनकी समाज में विश्वसनीयता है। अगर हम जाति युद्ध से बचना चाहते हैं, तो हमारे नीति नियंताओं को अब ठोस कदम उठाना होगा।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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