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आलेखचुनावराजनीतिसंपादकीय

पंचायत एवं नगरीय निकाय चुनाव” धनबल और बाहुबल के शिकंजे में लोकतंत्र।

🌀पंचायती राज कायम करने एवं स्थानीय स्वशासन की मजबूती के लिए संसद में 73 वां , 74 वां संशोधन 1992 में पारित किया गया। इन संशोधनों के 1993 में लागू करने के जरिए ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में सत्ता का विकेंद्रीकरण करके आम जनता के हाथों में सत्ता सौंपने का विनिश्चय किया गया।
5 वर्षों में स्थानीय संस्थाओं में निर्वाचन कराए जाने को बाध्यकारी बनाया गया। ग्राम सभाओं को सशक्त किया गया।  अन्य शक्तियां भी पंचायतों को, जनपद तथा जिला पंचायतों को सौंपी गई। नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय स्व:शासन को लागू करते हुए उनका सशक्तिकरण किया गया। हालांकि अभी भी यह सब अधूरा ही है। सन् 1957 में देश में पहली बार निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार ने केरल में पंचायती राज की अवधारणा प्रस्तुत की और उसे लागू किया। यहां तक कि राज्य सरकार का आधा बजट इन संस्थाओं को आवंटित किया गया।जिसे उनके व्दारा व्यय भी किया गया। जो निरंतर जारी रहा। इस मॉडल को देश में लागू करना तत्कालीन सरकारों के लिए मजबूरी बन गया। उससे ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में विकास की नई अवधारणा प्रस्तुत हुई । अब इसे पलटने की तैयारी है।
🌀 पंचायती राज एवं  स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था को उलटती की भाजपा की सरकारें ।
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जनता को संविधान और लोकतंत्र के जरिए मिले अधिकारों को उलटने की कोशिशें भाजपा सरकारों द्वारा लगातार जारी है। उत्तर प्रदेश मैं हुए पंचायत एवं स्थानीय चुनाव में नग्नता के साथ इसे प्रस्तुत किया गया है।
लोग इसे भूल भी नहीं पाए है कि, इस बीच मध्यप्रदेश में भी पंचायती राज एवं स्थानीय निकायों के चुनाव में धनबल और बाहुबल के जरिए लोकतंत्र को समाप्त करने की कोशिशें लगातार जारी है। वैसे तो स्थानीय निकायों के चुनाव मध्यप्रदेश में  सन् 2019 में होने थे। जो नहीं कराए गए। सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद यह चुनाव प्रदेश की भाजपा सरकार को मजबूरन कराने पड रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने हर हालत में चुनाव कराने का निर्णय पारित किया है । यह चुनाव कराने तो पड रहे हैं परंतु संवैधानिक प्रावधानों और अवधारणाओं को अघोषित तौर पर उल्टा जा रहा है।जिनको सरकार और प्रशासन के निर्णय से समझा जा सकता है।
🌀 सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से ही संभव हुए हैं स्थानीय निकायों के चुनाव —
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पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों के चुनावों को लगभग 8 वर्ष होने को है। अभी तक संवैधानिक बाध्यता के बावजूद चुनाव नहीं कराए जा रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद मजबूरन पंचायत और नगरी निकायों के चुनाव हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त टिप्पणी करते हुए तत्काल चुनाव कराने का निर्णय पारित किया। जिसके चलते चुनाव कराना संभव हुआ है। यह एक तरह से मजबूरी में कराए जा रहे चुनाव हैं। प्रदेश सरकार की मंन्सा 2023 के विधानसभा चुनावों के बाद  इन चुनावों को कराने की थी। परंतु न्यायालय के निर्णय के बाद सरकार चुनाव के लिए मजबूरन बाध्य हुई है। इस कारण चुनाव तो कराए जा रहे हैं, लेकिन ओछे हथकंडे अपनाकर इन संस्थाओं पर काबिज  होने की भाजपा सरकार द्वारा हर संभव कोशिशें भी की जा रही है।
🌀 अभ्यर्थी और प्रस्ताव को से भरवाए गए हैं बॉन्ड (मुचलके) –
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देश में पहली बार भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 116 के अंतर्गत पंचायत और नगरीय निकायों में चुनाव लड़ने वाले अभ्यर्थियों और उनके प्रस्तावकों से बॉन्ड (मुचलके) भरवाए गए हैं। इस संबंध में राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा कोई निर्देश नहीं दिया गया है। इसके बावजूद भी चंबल संभाग के भिंड और मुरैना जिलों में अभ्यर्थी और प्रस्तावकों से मुचलके ,नगदी जमा कराए हैं। पंचायत चुनाव में सरपंच से ₹40,000 ,जनपद सदस्य के अभ्यर्थी और प्रस्तावको से ₹60,000 जिला पंचायत में ₹80,000 तथा नगरीय निकाय चुनाव में पार्षद प्रत्याशियों से व प्रस्तावकों से ₹20,000 जमा कराए गए हैं। इस कार्यवाही में अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों से बांड लिए जा सकते हैं। इन चुनावों में 50% महिलाएं आरक्षण के चलते प्रत्याशी हैं। इनमें कई ने तो घर के बाहर कुछ नहीं देखा है। उन सब से भी बांड लिए गए हैं । यह अत्यंत आपत्तिजनक और कानून का दुरुपयोग है। विरोध करने के बावजूद भी ज्यादातर लोगों के बांड जमा हुए हैं। पंचायत चुनावों में मुरैना और भिंड जिले में लगभग ₹15 करोड़ बांड के जमा हुए हैं। इसके चलते आम नागरिक चुनाव लड़ने से वंचित ही रह गए हैं। यह लोकतंत्र पर सीधा हमला है। जो सरकार और प्रशासन द्वारा किया गया है।
🌀 चुनावों में धनबल और बाहुबल का प्रभाव रहा हावी, मुद्दे हुए गायब —
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स्थानीय निकाय चुनावों में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर धनबल और बाहुबल का प्रयोग हुआ है। यहां तक की पंचायतों में सरपंच पद के लिए भी करोड़ों रुपए बांटे गए हैं। इतने बड़े पैमाने पर नगदी वितरण पहली बार देखा गया है। इसके पीछे एक कारण यह भी था कि इन चुनावों में ग्रामीण और नगरीय विकास के मुद्दे पूरी तरह गायब रहे। पंचायत और नगरीय निकायों के चुनाव क्यों किसलिए इन पर कोई चर्चा, कोई संवाद आमतौर पर नहीं देखा गया। जातिगत संकीर्णतायें , धनबल और बाहुबल पूरे चुनाव में हावी रहे। यह बहुत ही अशुभ संकेत है।
🌀 चुनाव नतीजों में हुई हेरा फेरी  –
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इन चुनावों में यह आम  चर्चा का विषय है कि जिला पंचायत के चुनाव में मतगणना के बाद यहां तक कि तीन तीन दिन बाद तक राजनीतिक दखल के कारण परिणामों में हेरा फेरी देखी गई है। वैसे होना तो यह चाहिए था कि मतगणना के तुरंत बाद मतगणना की स्थिति संबंधी परिपत्र उम्मीदवारों को प्रदाय किया जाता, तत्पश्चात उन्हें प्रमाण पत्र दिए जाते तब मतगणना पार्क कार्य पूर्ण माना जाना चाहिए था। लेकिन मतगणना के बाद किसी तरह का कोई मतगणना संबंधी विवरण प्रत्याशियों को नहीं दिया गया। बाकायदा परिणाम की घोषणा के बाद भी  परिणामों में हेराफेरी करके उन्हें बदला गया है। यह आम चर्चा है। कुल मिलाकर यह संविधान और लोकतंत्र पर भी भीषण हमला है । इसी तरह निर्विरोध विजई प्रत्याशियों को भी पुरस्कृत कर गलत परंपरा शुरू की जा रही है। कई प्रत्याशी तो पहले लाखों रुपए व्यय या जमा कर गांवों में निर्विरोध जनप्रतिनिधि बने हैं। यह ट्रेंड भी लोकतंत्र की स्वस्थ परंपराओं के प्रतिकूल है। आजादी के 75  साल बाद, जब देश में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। तब लोकतंत्र को और मजबूत करने के बजाय इस तरह की गलत परंपराओं को बढ़ावा देना एक तरह से लोकतंत्र के खात्मे के लिए ही काम करेगा।
लेखक
अशोक तिवारी
प्रदेश उपाध्यक्ष मध्य प्रदेश किसान सभा

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Chief Editor JKA

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